कोलकाता पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के 2 सांसदों ने हाल ही में अलग राज्य बनाने संबंधी अलग-अलग बयान दिए। इनमें से एक उत्तर बंगाल ज...

कोलकाता पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के 2 सांसदों ने हाल ही में अलग राज्य बनाने संबंधी अलग-अलग बयान दिए। इनमें से एक उत्तर बंगाल जबकि दूसरा जंगल महल का इलाका शामिल है। बीजेपी नेतृत्व में इन्हें व्यक्तिगत बयान करार देते हुए पार्टी को इससे अलग कर लिया है। इन बयानों पर विवाद भी हुआ। हालांकि बंगाल में ऐसी मांगें नई नहीं है। देश को आजादी मिलने के बाद से पश्चिम बंगाल ने अलग राज्य के लिए 3 बड़े आंदोलन देखे हैं। यह सभी उत्तर बंगाल से ही जुड़े रहे हैं। 13 जून को अलीपुरदुआर से भाजपा सांसद जॉन बारला ने अलग राज्य या फिर उत्तर बंगाल को केंद्रशासित प्रदेश बनाए जाने की मांग की। उन्होंने पिछले कई सालों में क्षेत्र का विकास नहीं होने का हवाला देते हुए यह बात कही। वहीं इसके सप्ताह भर बाद बंगाल की ही बिशुनपुर सीट से बीजेपी सांसद सौमित्र खान ने जंगलमहल के इलाके को अलग राज्य बनाए जाने संबंधी बयान दिया। यह इलाका उत्तर बंगाल में शामिल नहीं है और पूर्व में माओवादियों का गढ़ रहा है। यहां भी अलग राज्य के पीछे विकास संबंधित तर्क दिए गए। हालांकि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने इन दोनों ही नेताओं के बयानों को व्यक्तिगत क्षमता में दी गई टिप्पणी करार देते हुए कहा कि बीजेपी, पश्चिम बंगाल के विभाजन के पक्ष में नहीं है। साथ ही इन बयानों का पार्टी लाइन से लेना देना नहीं है। आइए अब एक नजर डाल लेते हैं पश्चिम बंगाल में अलग राज्य बनाने संबंधी हुए बड़े आंदोलनों पर- 1. गोरखालैंड मूवमेंट 1980 के दशक में पश्चिम बंगाल में अलग उठी। उत्तर बंगाल में दार्जिलिंग की पहाड़ियों, सिलीगुड़ी के तराई क्षेत्र और दुआर के इलाकों को मिलाकर गोरखाओं के लिए अलग प्रदेश बनाए जाने की मांग उठी। शुरू में गोरखा नैशनल लिबरेशन फ्रंट (GNLF) के संस्थापक सुभाष घिसिंग ने इस आंदोलन को शुरू किया, जिसके पीछे क्षेत्र का विकास नहीं होने के साथ ही बिजली, स्वास्थ्य, स्कूल और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव था। सन 1985-86 के समय में यह आंदोलन अपने पीक पर था। 1200 लोगों की मौत हो चुकी थी। 1988 में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (DGHC) की स्थापना की गई, जिसने 23 सालों तक थोड़ी स्वायत्तता के साथ दार्जिलिंग की पहाड़ियों का प्रशासन संभाला। साल 2007 में यह मांग एक बार फिर से उठी। घिसिंग के पूर्व सहयोगी बिमल गुरुंग ने GNLF से नाता तोड़ते हुए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (GJM) का गठन किया। इस संगठन ने अब गोरखालैंड मूवमेंट की कमान संभाल ली। साल 2011 में DGHC की जगह गोरखा टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन का गठन किया गया। लेकिन गुरुंग ने राज्य सरकार की तरफ से हस्तक्षेप का हवाला देकर जीटीए से इस्तीफा दे दिया। 2017 में दार्जिलिंग के क्षेत्र में 104 दिनों की बंदी और हिंसक आंदोलन के बाद गुरुंग अंडरग्राउंड हो गए। वह पिछले साल सामने आए और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को अपना समर्थन दिया। इसके बाद से गोरखालैंड की मांग शांत पड़ी हुई है। बीजेपी भी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सहयोग से 2009 से ही दार्जिलिंग लोकसभा सीट जीतती आ रही है। लेकिन पार्टी के नेताओं ने गोरखालैंड की मांग से हमेशा खुद को अलग रखा है। 2. कमातापुर आंदोलन पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति में आने वाले कोच राजबोंगशी समुदाय तरफ से कमतापुर की मांग उठी। 1995 में कमतापुर लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (KLO) नामक हथियारबंद संगठन के गठन के बाद पहली बार यह मांग उठी। इसमें उत्तर बंगाल के 8 में से 7 जिलों के अलावा असम के कोकराझार, धुबरी, बोंगाईगां, केंद्रपारा जिले, बिहार का किशनगंज और नेपाल का झापा भी शामिल था। इस आंदोलन की मांग में कोच राजबोंगशी लोगों के सामने आ रही समस्याओं जैसे कि बेरोजगारी, जमीन के मुद्दे के साथ ही कमतापुरी भाषा, पहचान और आर्थिक पिछड़ापन शामिल था। साल 2000 के बाद नेतृत्व को लेकर पैदा हुए संकट के साथ ही KLO और ऑल कमलापुर स्टूडेंट्स यूनियन (AKSU) के कई कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के बाद यह आंदोलन भी लगभग समाप्त हो गया। 3. ग्रेटर कूचबिहार आंदोलन देश को स्वतंत्रता मिलने से पहले कूचबिहार अलग साम्राज्य था। आजादी के बाद जनवरी 1949 में हुए 3 समझौतों के जरिए कूचबिहार का भारत में विलय हो गया। इसके बाद 1950 में केंद्र सरकार ने पूर्ववर्ती कूचबिहार साम्राज्य को दो हिस्सों में बांट दिया। एक पश्चिम बंगाल में और दूसरा असम में गया। साल 1998 में ग्रेटर कूचबिहार पीपल्स असोसिएशन (GCPA) का गठन हुआ, जिसके महासचिव बने बांगशी बदन बर्मन। यहां अलग राज्य दिए जाने की मांग उठने लगी, जिसमें उत्तर बंगाल के 7 जिलों के साथ ही असम के कोकराझार, बोंगाईगांव और धुबरी का इलाका शामिल था। इस आंदोलन के नेता बर्मन और 55 अन्य को साल 2005 में गिरफ्तार कर लिया गया था। 2008 में पार्टी ने नेताओं की रिहाई के लिए भूख हड़ताल भी किया था। इस अलग राज्य की मांग ने कभी ज्यादा रफ्तार नहीं पकड़ी और लगभग 10 सालों तक प्रदर्शन और हड़ताल के बाद यह आंदोलन भी ठंडा पड़ गया।
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