Page Nav

HIDE

Grid

GRID_STYLE

Classic Header

{fbt_classic_header}

Top Ad

Breaking News:

latest

जाते-जाते येदियुरप्पा ने दिखाई अपनी ताकत...'लिंगायत' को ही मिली कर्नाटक की कुर्सी

बेंगलुरु इतना भी गुमान ना कर अपनी जीत पर ऐ बेखबर, शहर में तेरी जीत से ज्यादा चर्चे तो मेरी हार के हैं। कभी-कभी जीत से ज्यादा हार की चर्चा...

बेंगलुरु इतना भी गुमान ना कर अपनी जीत पर ऐ बेखबर, शहर में तेरी जीत से ज्यादा चर्चे तो मेरी हार के हैं। कभी-कभी जीत से ज्यादा हार की चर्चा होती है। कर्नाटक की राजनीति में एक नया मोड़ आया है। सियासी बिसात की बाजी में मोहरे तो बहुत सारे थे लेकिन सबसे बड़े बाजीगर बीएस येदियुरप्पा ही बने हैं। सोमवार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले येदियुरप्पा की जगह कर्नाटक को बसवराज बोम्मई के रूप में नया सीएम मिल गया है। लेकिन बेंगलुरु से लेकर मेंगलुरु तक चर्चा येदियुरप्पा की छिड़ी है। तो क्या येदियुरप्पा की इस हार में जीत छिपी है। आइए समझते हैं। येदियुरप्पा के बाद कौन? बढ़ रही थी उलझन कर्नाटक में येदियुरप्पा के बाद किसे कमान दी जाए, ये सवाल बीजेपी आलाकमान के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा था। एक तरफ राज्य में प्रभावशाली लिंगायत समुदाय की नाराजगी मोल लेने का जोखिम था तो दूसरी ओर पार्टी के अंदर गुटबाजी का खतरा भी। राज्य की आबादी में 17 फीसदी हिस्सेदारी वाले दलित समुदाय (2011 की जनगणना के मुताबिक) से किसी चेहरे को सीएम बनाने पर भी मंथन हो रहा था। वहीं ब्राह्मण नेता को भी सीएम बनाने की चर्चा थी। दरअसल रामकृष्ण हेगड़े के बाद पिछले 33 साल से राज्य में कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना है। आखिरकार येदियुरप्पा की ही चली सीएम की रेस में केंद्रीय मंत्री प्रहलाद जोशी, पूर्व केंद्रीय मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा, सीटी रवि और बीजेपी के राष्ट्रीय संगठन सचिव बीएल संतोष की भी चर्चा थी। जोशी और संतोष ब्राह्मण हैं। वहीं चिकमंगलुरु से एमएलए रवि एक अन्य प्रभावशाली समुदाय वोक्कालिगा से आते हैं। इसके साथ ही दलित चेहरे के रूप में 6 बार से विधायक और मत्स्य मंत्री एस अंगारा का नाम भी चर्चा में था। कर्नाटक में अब तक कोई दलित सीएम नहीं बन पाया है। ऐसे में अंगारा भी रेस में थे। लेकिन जैसे ही कर्नाटक के 20वें सीएम के रूप में बसवराज बोम्मई के नाम का ऐलान हुआ ये साफ हो गया कि पार्टी ने येदियुरप्पा की सलाह को ही सबसे ऊपर रखा। बोम्मई भी येदियुरप्पा की तरह लिंगायत समुदाय से ही आते हैं। येदियुरप्पा के सबसे करीबी लोगों में गिनती येदियुरप्पा ने सीएम की कुर्सी से विदाई के बावजूद अपनी ताकत दिखाई है। दरअसल 61 साल के बसवराज बोम्मई की गिनती येदियुरप्पा के सबसे विश्वासपात्र लोगों में है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि येदियुरप्पा की सरकार में उन्हें गृह मंत्री जैसा ओहदा दिया गया। मुख्यमंत्री के बाद सबसे अहम इस विभाग को माना जाता है। पिछले दो साल से वह येदियुरप्पा सरकार में वह नंबर दो की भूमिका में थे। रोजमर्रा के प्रशासनिक कामकाज के लिए येदियुरप्पा उन्हीं पर निर्भर थे। बीजेपी आलाकमान भी उनकी प्रशासनिक क्षमताओं से प्रभावित था। नाम का ऐलान होते ही बोम्मई ने छुए येदि के पैर जैसे ही विधायकों की बैठक में बोम्मई के नाम की घोषणा हुई, उन्होंने आगे बढ़कर येदियुरप्पा का पैर छुआ और आशीर्वाद लिया। बीजेपी एक विधायक भी मानते हैं कि येदियुरप्पा के समर्थन की वजह से ही अंतिम समय में पलड़ा बोम्मई के पक्ष में झुक गया। बीजेपी विधायक कहते हैं, 'यह येदियुरप्पा का मास्टरस्ट्रोक है। सीएम की कुर्सी पर नजरें गड़ाए जिन विरोधियों ने उनके खिलाफ बगावत का झंडा उठाया था, उन्हें येदियुरप्पा ने धराशाई कर दिया है।' एक लिंगायत हटा, दूसरे लिंगायत को ही मिली कुर्सी इस पूरे एपिसोड में एक बार फिर साफ हुआ कि कर्नाटक की सियासी डगर में लिंगायत समुदाय बीजेपी के लिए अहम है। एक बार येदियुरप्पा की नाराजगी झेलकर सत्ता से बाहर हुई बीजेपी ने इस बार 17 प्रतिशत वोट बैंक वाले लिंगायत कार्ड पर ही जोर दिया है। येदियुरप्पा से एलके आडवाणी ने जब 2011 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए कहा तो उन्होंने पार्टी से नाता तोड़ लिया। 2012 में अपनी खुद की केजेपी पार्टी शुरू की। येदियुरप्पा ने 10 फीसदी वोट हासिल कर 2013 के आम चुनाव में बीजेपी की हार सुनिश्चित की थी। हालांकि बोम्मई राज्य में लिंगायत समुदाय की कम ताकतवर सदर शाखा से आते हैं। इसके बावजूद माना जा रहा है कि वह बीजेपी के लिंगायत वोट बेस को बरकरार रखने में कामयाब रहेंगे। ऑल इंडिया वीरशैव महासभा के सचिव एचएम रेणुका प्रसन्ना ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा, 'हालांकि समुदाय येदियुरप्पा के इस्तीफे से दुखी है लेकिन फिर भी यह एक उपयुक्त और अच्छा चयन है।' 1969 से पहले तक ज्यादातर लिंगायत सीएम आजादी के पहले ही राज्य में लिंगायत शक्तिशाली रहे हैं। समुदाय को राज्य भर में फैले अपने धार्मिक ‘मठों’ और जातिगत रेखाओं को काटकर उनकी विशाल जनता से ताकत मिलती है। समुदाय आर्थिक रूप से मजबूत है और 1956 में राज्य के एकीकरण के बाद, 1969 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस पार्टी का विभाजन होने तक, लिंगायत के मुख्यमंत्रियों ने एक के बाद एक राज्य पर शासन किया। लिंगायत समुदाय राज्य की आबादी का 17 से 22 प्रतिशत हिस्सा है। चुनावों में यह प्रमुख भूमिका निभाता है। उत्तर कर्नाटक के 100 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में लिंगायत मतदाताओं का दबदबा है। तटीय क्षेत्र और कुछ जिलों को छोड़कर पूरे राज्य में लिंगायत मतदाताओं की उपस्थिति महसूस की जाती है। वर्तमान विधानसभा में इस समुदाय के 58 विधायक चुने गए हैं, जिनमें से 38 विधायक बीजेपी के हैं। राजीव गांधी की वो भूल और लिंगायत मुड़ गए राजनीतिक पंडितों का कहना है कि कांग्रेस पार्टी के नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल को नई दिल्ली के लिए रवाना होने से पहले हवाई अड्डे से बाहर निकलने की घोषणा की थी। इसके बाद लिंगायत वोट बीजेपी की ओर मुड़ गया और राज्य में उसकी संभावनाओं को बल मिला। लिंगायत वीरेंद्र पाटिल ने एक साल पहले हुए चुनावों में 224 सीटों वाली कर्नाटक विधानसभा में 184 सीटें जीतकर कांग्रेस पार्टी को बड़ी जीत दिलाई थी। उनके बाहर निकलने के बाद भले ही कांग्रेस पार्टी दो बार सत्ता में आई, लेकिन लिंगायतों को वापस अपने पाले में लाने के उसके प्रयास विफल रहे।


from Hindi Samachar: हिंदी समाचार, Samachar in Hindi, आज के ताजा हिंदी समाचार, Aaj Ki Taza Khabar, आज की ताजा खाबर, राज्य समाचार, शहर के समाचार - नवभारत टाइम्स https://ift.tt/3BScwce
https://ift.tt/3f4NU66

No comments