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Bihar Flood : क्यों डूब रहा बिहार? ढाई दिन की बाढ़...ढाई महीने में कैसे बदली? जानिए समस्या से समाधान तक

पटना बिहार के दर्जनभर जिलों में बाढ़ की पानी से तबाही है। सीमांचल की बात कौन करे अब तो राजधानी पटना पर खतरा मंडरा रहा है। शहर में भले ही ...

पटना बिहार के दर्जनभर जिलों में बाढ़ की पानी से तबाही है। सीमांचल की बात कौन करे अब तो राजधानी पटना पर खतरा मंडरा रहा है। शहर में भले ही इसका अहसास न हो मगर बाहरी इलाकों के लोग काफी परेशान हैं। कई जगहों पर घरों में पानी घुस गया है। बिहार में 73 लाख हेक्टेयर में बाढ़ का पानीबिहार ही नहीं देश के दूसरे राज्य भी बाढ़ की समस्या से जूझ रहे हैं या फिर जूझते रहे हैं। तमाम सरकारें बाढ़ प्रबंधन की कोशिशें करती है। लाखों-करोड़ रुपए खर्च करती हैं मगर हालात में कुछ खास परिवर्तन नहीं दिखता है। भारत का बाढ़ संभावित क्षेत्र 1952 में 250 लाख हेक्टेयर था, जो अब दोगुना होकर 500 लाख हेक्टेयर तक पहुंच चुका है। बिहार में तो बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 73 लाख हेक्टेयर हो गया है। समय के साथ सरकारों के रूख में बदवाल दिखा रहा है। पहले बाढ़ नियंत्रण की बातें होती थी। अब बाढ़ का प्रबंधन किया जाता है। मगर इसके साथ जीने की बातें हो रही है। तटबंध को लेकर विशेषज्ञों ने क्या कहा?1936 में बिहार के चीफ इंजीनियर कैप्टन जी एफ हाल ने कहा था कि अगर तटबंध बनते रहे या जो है वही बना रहे, तब भी हम भविष्य के लिए भयंकर विपत्तियों को बुलावा दे रहे हैं। मगर जी एफ हाल से 85 साल (सन् 1900) पहले अंग्रेज इंजीनियर विलबर्न इंग्लिश ने रिटायर होने के बाद कहा था कि हम प्रकृति को उसकी मनमानी कैसे करने दें? प्रकृति ने हमें नंगा पैदा किया और हमने कपड़े का इजाद किया। वर्षा और धूप से बचाव के लिए छाते का आविष्कार किया। उन खेतों पर से बालू हटाए, जिनको प्रकृति ने पाट दिया था। इसलिए यह परिवर्तन स्वीकार करना पड़ेगा। इस पर प्रसिद्ध जल विशेषज्ञ दिनेश मिश्र ने अखबार में लिखे आलेख में कहा कि लेकिन हमने धूप से बचने के लिए आसमान ढंकने की कोशिश नहीं की। हमें विज्ञान की मर्यादा का ध्यान रखना पड़ेगा। 'तटबंध का निर्माण नदियों को ललकारने जैसा'दिनेश मिश्र के मुताबिक अंग्रेजों के समय का एक इंजीनियर कैप्टन एफ सी हस्रट, जिसने चीन की ह्वांगहो और अमेरिका की मिसीसिपी नदी के किनारे बने तटबंधों पर बड़ी बात कही थी। उन्होंने कहा था कि नदियों को इस तरह से बांधना उनको ललकारने जैसा है, इसका बदला लिए बिना वे छोड़ती नहीं हैं। दरअसल नदियों का मुख्य कार्य है कि जलग्रहण क्षेत्र में पड़ने वाली वर्षा की पानी को दूसरी बड़ी नदी और फिर समुद्र तक पहुंचाना। पाट का विस्तार करके भूमि निर्माण करना, कृषि क्षेत्र की उर्वरता को कायम रखना और भूगर्भ जल के स्थायित्व को बनाए रखना। मगर जैसे-जैसे जनसंख्या और जरूरतें बढ़ती गई, वैसे-वैसे प्रकृति को मुट्ठी में करने की कोशिशें की गई। नदियों से छेड़छाड़ अपने साथ तबाही और मुसीबतें लेकर आया। स्वागत वाली बाढ़ मुसीबत में बदल गई...विकास के नाम पर सड़क, रेलवे, नहरें और हाइड्रो प्रोजेक्ट का निर्माण किया गया। बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर तटबंध बनाए गए। इनका लाभ मिला, इससे इनकार नहीं कर सकते। जल विशेषज्ञ दिनेश मिश्र ने कहा कि सुविधाओं के नाम पर पानी के रास्ते में बाधाएं डाली गई। जो बाढ़ ढाई दिन की होती थी, वो अब ढाई महीने से ज्यादा की हो गई। जान-माल और संपत्ति का नुकसान पहले से कहीं ज्यादा होने लगा। इंसान ने यह सब विकास के नाम पर किया। जहां भी नदी के पानी को फैलने से रोका गया, वहां की जमीन की उर्वरता शक्ति घट गई। भूगर्भ जल की गुणवत्ता और उसकी मात्रा पर चोट पड़ी। स्वागत वाली बाढ़ मुसीबत में बदल गई। जलनिकासी का इंतजाम तो करना पड़ेगाहोना तो ये चाहिए था कि पानी ज्यादा होने पर जलनिकासी का इंतजाम हो। विकास के नाम पर पानी को बांधा जाने लगा। विकास के नाम पर अंधाधुंध संरचनाएं प्रकृति से सबकुछ छिनने पर आमादा है। नदियां भी अपने हिसाब-किताब करते रहती हैं। इसी का नतीजा है कि बाढ़ कंट्रोल तो नहीं हुआ बल्कि बाढ़ विभीषिका में बदल गया। बाढ़ संभावित क्षेत्र में वृद्धि हो रही है।


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