कोलकाता रविवार को जब काबुल के हामिद करजई एयरपोर्ट से एयर इंडिया की फ्लाइट एआई-244 ने दिल्ली के लिए उड़ान भरी तो सोहिनी सरकार की जान में ...

कोलकाता रविवार को जब काबुल के हामिद करजई एयरपोर्ट से एयर इंडिया की फ्लाइट एआई-244 ने दिल्ली के लिए उड़ान भरी तो सोहिनी सरकार की जान में जान आई। सोहिनी कोलकाता की हैं और फिलहाल अमेरिका में रह रही हैं। वह अफगानिस्तान में एक अमेरिकी एनजीओ के साथ काम कर रही थीं। जब तालिबान ने काबुल में घुस रहा था उसी समय सरकार किसी तरह एयरपोर्ट पहुंच पाईं। वह भाग्यशाली थीं कि वह एयर इंडिया की आखिरी फ्लाई में बैठ सकीं जो काबुल से शाम को उड़कर रविवार रात 9 बजे दिल्ली पहुंची। दिल्ली में अपने दोस्त के घर पहुंचकर सरकार बोलीं, 'यह समय के साथ एक डरावनी दौड़ लगाने जैसा था।' काबुल से बाहर निकलने की घटनाओं को याद करके सरकार कहती हैं, 'शनिवार रात को बिजली कट चुकी थी। मैं एयरपोर्ट के पास रहती थी जहां फिलहाल अमेरिकी सेनाएं रुकी हुई हैं। मुझे लगा कि वह सुरक्षित जगह है लेकिन रविवार को सब कुछ बदल गया। हमें अमेरिकी दूतावास से चेतावनी मिली की सारे संवेदनशील दस्तावेजों को जला दिया जाए और जल्द से जल्द वहां से निकल जाया जाए। हालात बहुत डरावने थे।' सरकार ने बताया, 'मेरे कुछ सहकर्मी पैसे निकालने बैंक गए तो पता चला कि बैंक क्रैश हो चुके हैं। हमने अपने अफगान सहकर्मियों को ऑफिस से उनके घर भेज दिया। हम लोगों ने जल्दी-जल्दी जरूरी दस्तावेज नष्ट करने की कोशिश की। यह सब कुछ घंटों में ही हो गया।' लेकिन एयरपोर्ट तक पहुंचना आसान नहीं था। सरकार कहती हैं, 'आमतौर पर जहां मैं रहती हूं वहां से एयरपोर्ट पहुंचने में 15 से 20 मिनट लगते हैं लेकिन रविवार को वह रास्ता हजारों कारों से भरा था। एयरपोर्ट तक पहुंचने में एक घंटा लगा। शुक्र था कि रास्ते में न कोई चेकपॉइंट था न कोई हमला हुआ। लेकिन बाद में पता चला कि जहां मैं रहती थी वहां से महज 100 मीटर दूर तालिबान की एक पोस्ट थी।' सरकार की शुरू में 21 अगस्त को अफगानिस्तान छोड़ने की योजना थी क्योंकि अमेरिकी सेनाओं ने अगस्त के आखिर तक देश छोड़ने की बात कही थी। लेकिन किसी को अंदाजा नहीं था कि तालिबान इतनी तेजी से अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा। सरकार बोलीं, 'यहां तक कि जब जलालाबाद पर कब्जा हुआ तो हमें लगा कि देश में अमेरिकी फौजों के रहते तालिबान काबुल में नहीं घुसेंगे। लेकिन रात भर में ही हालात बदल गए।' सरकार के लिए व्यक्तिगत तौर पर अफगानिस्तान छोड़ना तकलीफदेह फैसला था क्योंकि उन्हें पता था कि उनके साथ के स्थानीय लोग ऐसा नहीं कर पाएंगे। वह कहती हैं, 'मुझे पता था कि मैं जिस चीज से बचकर जा रही थी उन्हें उससे नहीं बचा पाऊंगी। मैं ऐसे सहकर्मियों को पीछे छोड़कर जा रही थी जो अब दोस्त बन चुके थे। हमारे पुरुष सहकर्मियों की आंखों में आंसू थे, उन्होंने हमसे कहा कि उनके लिए दुआ करें।' सरकार अपनी महिला सहकर्मियों की याद करती हैं और कहती हैं, 'वे अपने लिए बेहतर कर रही थीं। लेकिन उनके सपने चूर हो गए। ये वे लोग थे जिन्होंने अपने जीवन को फिर से संवारने और एक आधुनिक देश बनाने का सपना देखा। एक आम अफगान नागरिक के साथ यह नहीं होना चाहिए था। उन्होंने अपील की विश्व नेताओं को इस मानवीय त्रासदी की ओर ध्यान देना चाहिए।
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