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यारों का यार, सबका हमदर्द... फिर देहरादून IMA में पढ़ने वाला 'शेरू' कैसे बना तालिबान का टॉप कमांडर?

देहरादून अफगानिस्‍तान में हुए ताजा तख्‍ता पलट के बाद तालिबान सत्‍ता पर काबिज है। तालिबान के 7 सबसे ताकतवर नेताओं में से एक शेर मोहम्‍मद अ...

देहरादून अफगानिस्‍तान में हुए ताजा तख्‍ता पलट के बाद तालिबान सत्‍ता पर काबिज है। तालिबान के 7 सबसे ताकतवर नेताओं में से एक शेर मोहम्‍मद अब्‍बास स्‍टानिकजई (60) कभी देहरादून की इंडियन मिलिटरी अकैडमी (आईएमए) में जेंटलमैन कैडेट था। आईएमए के 1982 बैच के उसके साथियों ने उसका नाम 'शेरू' रखा था। आईएमए के इस बैच के उसके साथी बताते हैं कि स्‍टानिकजई मजबूत शरीर का था, उसकी लंबाई बहुत ज्‍यादा नहीं थी। इसके अलावा वह कट्टर धार्मिक विचारों वाला भी नहीं था। स्‍टानिकजई की उम्र उस समय 20 साल की थी, जब वह भगत बटैलियन की केरेन कंपनी में 45 जेंटलमैन कैडेट के साथ आईएमए में आया। 'सब पसंद करते थे उसे' रिटायर्ड मेजर जनरल डीए चतुर्वेदी उसके बैचमेट थे। वह कहते हैं, 'उसे सभी लोग पसंद करते थे। वह अकैडमी के दूसरे कैडेट से कुछ ज्‍यादा उम्र का लगता था। उसकी रौबदार मूंछें थीं। उस समय उसके विचार कट्टर नहीं थे। वह एक औसत अफगान कैडेट जैसा ही था जो यहां आकर खुश था।' रिटायर्ड मेजर जनरल चतुर्वेदी को परम विशिष्‍ट सेवा मेडल, अति विशिष्‍ट सेवा मेडल और सेना मेडल मिल चुका है। असल में आईएमए में आजादी के बाद से ही विदेशी कैडेटों को प्रवेश मिलता रहा है। अफगान कैडेटों को भारत-पाक युद्ध के बाद साल 1971 से यह सुविधा मिल रही थी। स्‍टानिकजई अफगान नेशनल डिफेंस ऐंड सिक्‍यॉरिटी फोर्सेज का डायरेक्‍ट रिक्रूट था। 'गंगा स्‍नान का फोटो है अभी' रिटायर्ड कर्नल केसर सिंह शेखावत ने हमारे सहयोगी टाइम्‍स ऑफ इंडिया को बताया, 'वह एक आम युवा था। मुझे याद है एक बार हम ऋषिकेश में गंगा में नहाने गए थे। उस दिन का एक फोटो है जिसमें शेरू ने आईएमए की स्विमिंग कॉस्‍ट्यूम पहन रखी है। वह बहुत दोस्‍ताना स्‍वभाव का था। हम वीकेंड पर जंगलों और पहाड़ों पर घूमने जाते थे। आईएमए में डेढ़ साल में उसने प्री कमिशन ट्रेनिंग पूरी की। इसके बाद उसने अफगान नेशनल आर्मी लेफ्टिनेंट के तौर पर जॉइन की। इसके कुछ पहले ही सोवियत रूस ने अफगानिस्‍तान पर कब्‍जा किया था। 1996 में तालिबान का साथ साल 1996 तक स्‍टानिकजई ने सेना छोड़ दी और तालिबान में शामिल हो गया। अमेरिकी राष्‍ट्रपति क्लिंटन की सरकार से तालिबान को राजनयिक मान्‍यता दिए जाने संबंधी वार्ता में वह शामिल था। साल 1997 में न्‍यूयॉर्क टाइम्‍स में छपे एक लेख में स्‍टानिकजई को तालिबान सरकार का कार्यकारी विदेश मंत्री बताया गया था। इसमें यह भी कहा गया था कि उसने अंग्रेजी बोलना भारत के कॉलेज से सीखा था। बना तालिबान का प्रमुख वार्ताकार बाद में सालों वह तालिबान का प्रमुख वार्ताकार बन गया था। उसका इंग्लिश बोलने का कौशल और मिलिटरी ट्रेनिंग की वजह से उसे तालिबान में अच्‍छा ओहदा मिला। जब तालिबान ने दोहा में अपना राजनीतिक ऑफिस खोला तो वहां तालिबान के सीनियर नेता वहां आने लगे। साल 2012 से स्‍टानिकजई तालिबान का प्रतिनिधित्‍व करता रहा। इसके बाद साल 2019 से यह काम तालिबान के सह संस्‍थापक अब्‍दुल गनी बारादर ने अपने हाथों में ले लिया तो स्‍टानिकजई वापस आ गया। इसके बावजूद वह तालिबान के टॉप वार्ताकारों में से एक है। 'तालिबान से बातचीत में अहम कड़ी'अब बदले हालात में स्‍टानिकजई के दोस्‍तों का सुझाव है कि तालिबान के साथ बातचीत में वह एक अहम कड़ी साबित हो सकता है। चतुर्वेदी क‍हते हैं, 'यकीनन उसके मन में भारत की सुखद यादें होंगी। मेरे विचार में विदेश मंत्रालय के पास एक मौका है कि वह आईएमए के दिनों के उसके दोस्‍तों के नेटवर्क के जरिए उससे संपर्क करके तालिबान के साथ बातचीत की शुरुआत कर सकता है।


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