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ब्लॉग : 2 अक्टूबर की इस जंग में मिली होती जीत तो वीर कुंवर सिंह बदल देते इतिहास

विवेक सिन्हा दो अक्टूबर! दुनिया गांधी जयंती के दिन अहिंसा दिवस मनाती है। और एक शहर जंग-ए-आजादी की पहली लड़ाई की खूनी बरसी मनाता है। याद क...

विवेक सिन्हा दो अक्टूबर! दुनिया गांधी जयंती के दिन अहिंसा दिवस मनाती है। और एक शहर जंग-ए-आजादी की पहली लड़ाई की खूनी बरसी मनाता है। याद करता है इतिहास का वो क्रूरतम दिन जब एक ही कब्र में 150 क्रांतिकारियों को मौत की नींद सुला दी गई थी। वो जंग, जो आजादी के दीवानों ने जीत ली होती तो वीर कुंवर सिंह को पराजय का मुंह नहीं देखना पड़ता। कम से कम बिहार पर अंग्रेजों का कब्जा खत्म हो जाता। मगर इतिहास ने चतरा के साथ हमेशा से नाइंसाफी ही की। झारखंड का एक ऐसा जिला तो जो आज भी कमोबेश वैसा ही है जैसा कि 164 साल पहले था। साल 1857 की सबसे बड़ी जंगों में एक 'बैटल ऑफ चतरा' की कहानी आज तक जुबानी ही चली आ रही है। खून से सने इतिहास के पीले पन्नों को खंगालने की कोशिश बहुत ही कम ही हुई। कितने क्रांतिकारियों ने बलिदान दिया, कितने अंग्रेज सैनिक मारे गए और इस जंग को लेकर फोर्ट विलियम्स कोलकाता की कितनी पैनी नजर थी जैसी तमाम बातें अभिलेखागारों में दीमकों का पेट भरती रही है। मगर पहली बार आप यहां पढ़ रहे हैं 2 अक्टूबर 1857 का आंखों देखा हाल। उनकी जुबानी जो इस जंग का हिस्सा रहे, चाहे वो मेजर इंग्लिश हों या कर्नल फिशर या फिर डॉल्टन और सिंपसन। अंग्रेजों के लिए तोपों, हाथियों और हथियारों से लैस रामगढ़ बटालियन से बागी हुए 3 हजार क्रांतिकारियों रोकना कितना जरूरी था। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता था कि हर दिन दर्जनों बार टेलिग्राफिक संदेशों आदान-प्रदान हुआ। चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ से लेकर बंगाल सरकार के सेक्रेट्री तक इस युद्ध को जीतने के लिए संदेश भेज रहे थे। झारखंड के पुस्तकालयों और सरकारी अभिलेखागारों में ये रिकॉर्ड भले ही नहीं मिलते हों लेकिन ब्रिटिश लाइब्रेरी, अमेरिकी यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी और भारत के ओस्मानिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में आज भी बैटल ऑफ चतरा के इतिहास के पन्ने अपने पलटे जाने का इंतजार कर रह हैं। अंग्रेजों ने इसे ‘बैटल ऑफ चतरा’ कहा 1857 में लंदन से प्रकाशित और ब्रिटिश संसद की दोनों सदनों में पेश की गई रिपोर्ट 'MUTINIES IN THE EAST INDIES' में चतरा में हुई इस जंग को 'बैटल ऑफ चतरा' (अंग्रेजों ने कहीं चित्रा लिखा और कहीं Chuttra) कहा गया। इसी किताब में एक टेलीग्राम है कर्नल फिशर का जिसे 14 सितंबर 1857 को दोपहर 2:20 बजे कमांडर इन चीफ फोर्ट विलियम को भेजा गया। कर्नल फिशर ने लिखा 'एक्सीलेंसी आज सुबह विद्रोही छोटानागपुर से निकल गए हैं कैप्टन डॉल्टन के मुताबिक ये लोग पलामू होते हुए रोहतासगढ़ की ओर जाने वाले हैं मैं इन्हें चतरा और कुंदा के मार्ग पर रोकने के लिए तैयार हूं।' 24 सितंबर 1857 को कर्नल फिशर ने चीफ ऑफ स्टाफ को टेलीग्राम संदेश में लिखा, 'मेजर इंग्लिश को संदेश भेज दिया जाए कि विद्रोहियों का पता लगते ही उन पर आक्रमण किया जाए चाहे हजारीबाग में या फिर चतरा में।' इसी तरह 26 सितंबर 1857 को कर्नल फिशर ने चतरा से शेरघाटी जाने वाली सड़क को हर हाल में तोड़ने की सलाह दी ताकि विद्रोही शेरघाटी की ओर ना सके। हजारों की संख्या में रामगढ़ नेटीव इन्फ्रेंट्री के बागी जवानों को घेरने के लिए चारों तरफ से ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश फौज के साथ सिखों की सेना भी लगी थी। इसी दौरान कर्नल फिशर के रेजीमेंट में कॉलरा फैल गई, कई अंग्रेज सैनिक बीमार हो गए और दो की मौत गई। उनके रसद की भी कमी होने लगी थी। इसी बीच 28 सितंबर 1857 को हजारीबाग से मेजर इंग्लिश ने कोलकाता संदेश में लिखा, 'अगर दुश्मनों ने पहले पोजिशन ले ली तो उन्हें हराना मुश्किल होगी मेजर सिंपसन के साथ जो सिख बटालियन है वो अनट्रेंड हैं।' 29 सितंबर 1857 को कर्नल फिशर की ओर से कोलकाता भेजे गए संदेश के मुताबिक, 'विद्रोही बालूमाथ पहुंच चुके हैं या तो चतरा जाएंगें या कुंदा उनके पास 4 तोपें हैं और तोपों के साथ चलने में ज्यादा वक्त लगता है विद्रोहियों के साथ स्थानीय 'बदमाश' भी मिल चुके हैं।' ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों को ये जानकारी मिलते ही जैसे होश फाख्ता हो गए, चार तोपों का मतलब वे अच्छी तरह जानते थे। अंग्रेजी सेना के लिए जब जूते मंगाने पड़े कोलकाता से चीफ ऑफ स्टाफ ने मेजर इंग्लिश को 29 सितंबर को संदेश भेजा कि 'उनके लिए 200 जूते (बूट्स ) भेजे जा रहे हैं, बरही पहुंचो, आपको हजारीबाग में ही रहना है और गुप्त सूचनाएं इकट्ठा करनी महत्वपूर्ण है।' 'बैटल ऑफ चतरा' के दस्तावेजों से मालूम चलता है कि अंग्रेजी सेना में भी आपसी तालमेल की कमी थी, कई बार चतरा-पलामू-हजारीबाग और शेरघाटी में तैनात अधिकारियों ने एक दूसरे की शिकायत की। कर्नल फिशर ने तो 30 सितंबर 1857 को भेजे अपने संदेश यहां तक कह दिया कि मेजर इंग्लिश उनका आदेश नहीं मान रहे हैं और चतरा जाने में देरी की। इसी बीच 30 सितंबर को शेरघाटी के डिप्टी मजिस्ट्रेट ने बंगाल सरकार के सेक्रेट्री को संदेश भेजा कि विद्रोही चतरा पहुंच चुके हैं। क्रांतिकारी 30 सितंबर को चतरा में डेरा डाल चुके थे। उन्होंने चतरा के जेल के पास एक तालाब जिसे आज फांसी तालाब के नाम से जाना जाता है वहां अपना कैंप बना लिया। ये कैंप शेरघाटी जाने वाले रास्ते में ही था। तीन तरफ धान के खेत थे और एक ओर जंगल। जंग ए आजादी के सिपाहियों को देख चतरा का दारोगा शहर छोड़ कर फरार हो गया, हंटरगंज का दारोगा भी भाग गया। इसकी जानकारी कोलकाता भेजी शेरघाटी डीएम ने। दो गुमनाम हीरो 'बैटल ऑफ चतरा' का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है इंडियन हिस्टॉरिकल रिकॉर्ड कमीशन की दसवीं बैठक की प्रोसिडिंग 1927 में रंगून में हुई। इस बैठक में प्रोफेसर जे सामदार ने बहुत ही अहम जानकारियां दीं। उन्होंने अपने लेख Two Forgotten Mutiny Heroes में इस जंग के महत्व को बहुत ही विस्तार से पेश किया। प्रोफेसर सामदार ने लिखा, 'मैं बिहार और ओडिशा के पब्लिक इंस्ट्रक्शन के निदेशक जी ई फॉकस के साथ आधिकारिक दौरे पर चतरा गया था जहां हमने महारानी की 53वीं रेजीमेंट और सिखों की सेना के 56 जवानों की कब्रें देखीं जो 2 अक्टूबर 1857 को रामगढ़ बटालियन से युद्ध में मारे गए थे।' इंडियन हिस्टॉरिकल रिकॉर्ड कमीशन में प्रकाशित शेरघाटी से कोलकाता भेजे गए तार के मुताबिक, 'मेजर इंग्लिश ने संदेश भेजा है कि 2 अक्टूबर को रामगढ़ बटालियन के साथ भयानक युद्ध हुआ, हमारी जीत हुई हमने 4 तोपों को अपने कब्जे में ले लिया है, 45 बैलगाड़ियों पर हथियार और रसद भी कब्जे में हैं हमारे 45 लोग मारे गए हैं हम आगे बढ़ने की स्थिति में नहीं है हमारे चारों ओर जंगल है।' 4 अक्टूबर को सुबह सवा 9 बजे मेजर इंग्लिश ने कोलकाता संदेश दिया की, 'हमें बहुत नुकसान हुआ है, हालांकि हमने उनके हथियारों पर कब्जा कर लिया साथ ही दस हाथी भी हमारे कब्जे में है। हमारे 53वें हर मेजेस्टी के 36 जवान मारे गए।' इसमें कोई शक नहीं कि रामगढ़ रेजीमेंट के बागी जवानों ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिए। कई दिनों से जंगल-जंगल भटक रही बागी सेना के हाथों अंग्रेजों के 56 सैनिकों की मौत अपने आप में वीरता की कहानी बताने के लिए काफी है। 2 अक्टूबर 1857 को हुए चतरा के युद्ध में जो सबसे महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है वो है छोटानागपुर के उस वक्त के कमीश्नर एफ ई डाल्टन को अस्सिटेंट कमीश्नर जे सिंपसन की चिट्ठी से। डाल्टन ने लिखा कि बागियों ने चतरा के पश्चिम में मजबूती के साथ कैंप कर लिया था, पूरा शहर उनके पूरब में था। शहर की तंग गलियों से जाना खुद को खतरे में डालने जैसा था, मेजर स्मिथ ने एक खाका तैयार किया और मेजर इंग्लिश ने पुरानी जेल जो कि दक्षिण की तरफ था अटैक किया। वे ऊंचाई पर थे, हमने उन पर 900 गज की दूरी से इनफिल्ड गन से फायरिंग की। वे धान की खेत की ओर थे, हमारे सैनिकों को खेत में जाने में दिक्कतें हो रही थी फिर भी हमने उनका नुकसान किया, तोपों पर कब्जा कर लिया। जे सिंपसन ने आगे लिखा, '3 अक्टूबर को हमने एक ही खड्डे में रामगढ़ बटालियन के 77 बागियों के शवों को डाल दिया। सूबेदार जय मंगल पांडेय और नादिर अली जो कि घायल हो गए थे उन्हें जंगल से पकड़कर मेरे पास लाया गया और 1857 के कानून XVII के तहत मौत की सजा सुनाई गई। उन्हें उसी जगह फांसी दी गई जहां हमारे सैनिक मारे गए थे।' युद्ध का बना था स्केच जे सिंपसन ने युद्ध का एक स्केच भी तैयार किया था जो आज भी राष्ट्रीय अभिलेखागार में किसी के देखे जाने के इंतजार में है। इस युद्ध में छोटानागपुर के राजा के पूर्व दीवान ठाकुर विश्वनाथ सिंह और गणपत राय ने भी हिस्सा लिया था लेकिन वो बच निकलने में कामयाब हो गए थे। रामगढ़ बटालियन के बागी सिपाहियों के पास ना सिर्फ रांची के डोरंडा शस्त्रागार से लूटे गए भारी मात्रा में गोला-बारूद और हथियार थे बल्कि 10 हाथी, 100 के करीब बैलगाड़ियां, दर्जनों घोड़े, लोहरदगा कोषागार से लूटे गए लाखों रुपए, सिक्के और अफीम की पेटियां भी थीं। चतरा के किस मकान से चली थी क्रांतिकारियों पर गोलियां, किसने की मुखबिरों? अंग्रजों को हिन्दुस्तान से बेदखल करने के लिए उनके पास तैयारियां तो पूरी थीं लेकिन ऐताहिसक दस्तावेजों की मानें तो स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में वे नाकाम रहे जिसकी वजह से उनकी मुखबिरी हुई। साथ ही टेलीग्राफ के तार नहीं काटने की भी चूक उनकी हार की बड़ी वजह बनीं। अगर वे वीर कुंवर सिंह का साथ देने में कामयाब हो जाते तो शायद इतिहास कुछ और होता। अंग्रेजों के दस्तावेजों के मुताबिक चतरा के एक दो मंजिला मकान से क्रांतिकारी सैनिकों पर गोलियां ही चलाई गई थी। बहरहाल 3 हजार विद्रोही सैनिकों में 150 सैनिकों की शहादत हुई जिन्हें एक ही गड्ढे में डाल दिया गया जो बाद में तलाब बन गया। आज भी यहां एक स्मारक अपने इतिहास पर रो रहा है, इसी स्मारक से कुछ दूरी पर अंग्रेजों की भी कब्रें हैं जय मंगल पांडेय और नादिर अली की बहादुरी की गवाही दे रहे हैं। इस युद्ध की कहानी 1857 में लंदन से छपने वाले नामी अखबार इलिस्ट्रेड लंदन न्यूज में भी प्रकाशित हुई थी। चतरा के लोगों ने भले ही इस युद्ध के लिखित दस्तावेजों को सहेजने की जहमत नहीं उठाई हो लेकिन गीतों में हमेशा के लिए अमर हो गए जय मंगल पांडेय और नादिर अली। आज भी पुरानी पीढ़ी 2 अक्टूबर को गुनगुनाना नहीं भूलती, "जय मंगल पांडेय नादिर अली, दोनों सूबेदार रे, दोनों मिलकर फांसी चढ़े हरजीवन तालाब रे''। चतरा के लोग जहां एक तरफ इस दिन राष्ट्रपिता की जयंती पर उन्हें याद करते हैं वहीं सैकड़ों शहीदों को भी श्रद्धांजलि देना नहीं भूलते। (लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं) डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं।


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