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Opinion : घर में रहो तो काम का हर्जा, बाहर निकलो तो जान का खर्चा... ये दर्द वही जाने जो भोगे, 'हम बिहारी शौक से कश्मीर नहीं जाते सरकार'

पटना अररिया में खेरूगंज के योगेन्द्र ऋषिदेव की मां करनी देवी बेसुध हाल में हैं। पूछने पर सिर्फ इतना कहती हैं कि मंझला बेटा इसलिए कश्मीर ग...

पटना अररिया में खेरूगंज के योगेन्द्र ऋषिदेव की मां करनी देवी बेसुध हाल में हैं। पूछने पर सिर्फ इतना कहती हैं कि मंझला बेटा इसलिए कश्मीर गया था कि कुछ कमाएगा तो घर में खुशहाली आएगी, लेकिन खुशहाली की जगह मौत की खबर आई। कुछ ऐसा ही हाल अररिया में ही मिर्जापुर के राजा ऋषिदेव के घर का है। इन दोनों की कुलगाम में आतंकियों ने गोली मार कर हत्या कर दी। सवाल ये कि आखिर रोटी कमाना इतना महंगा क्यों है कि लोग पलायन कर सीधे मौत के मुंह में ही चले जा रहे हैं? घर में रहो तो काम का हर्जा, बाहर निकलो तो जान का खर्चा बिहार के मजदूरों के लिए ये कड़वी हकीकत है कि अगर वो घर में रहेंगे तो काम का हर्जा होगा और बाहर निकलेंगे तो जान का खर्चा। ये दर्द तो जो भोगता है वही जानता है। सरकार को इससे कितना और क्या फर्क पड़ता है ये नहीं मालूम, मगर उन मजदूरों के घर तो ऐसा फर्क पड़ा के घरवालों की दुनिया ही उजड़ गई। बांका में पसरे मातम के बीच भी पलायन का सवाल इधर, बांका के बाराहाट प्रखंड के परघड़ी गांव के रहने वाले अरविंद कुमार साह के घर पर भी मातम पसरा है। आतंकियों ने शनिवार को उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस गांव के करीब 150 से 200 लोग जम्मू कश्मीर में रहकर अपना और अपने परिवार को पेट पाल रहे हैं। अरविंद की मौत के खबर के दो दिन गुजर गए हैं, लेकिन गांव के अधिकांश घरों में चूल्हे नहीं जले हैं। गांव के लोग अब अपने गांव के बच्चों को जम्मू कश्मीर छोड़कर वापस आने का दबाव डाल रहे हैं। गांव लौटने की कोशिश में मजदूरग्रामीण बताते हैं कि कई युवक वापस लौटने की योजना बना रहे हैं। गांव के लोग लगातार अपने जम्मू कश्मीर गए परिवार के सदस्यों को फोन कर उनके ठीक होने की जानकारी ले रहे हैं। हालांकि, गांव के लोगों को यह भी चिंता सता रही कि बेटे तो वापस आ जाएंगे, लेकिन उनका घर-परिवार कैसे चलेगा। यहां काम मिलता, तो उन्हें अन्य प्रदेशों में जाने की जरूरत ही क्यों पड़ती? बांका के अरविंद जम्मू कश्मीर में गोलगप्पा बेचकर परिवार का भरण पोषण करते थे। गांव के लोग अब सवाल उठा रहे हैं कि आखिर इनकी आतंकियों से क्या दुश्मनी थी? सरकार के दावों के बावजूद पलायन क्यों? अगर पलायन नहीं होता तो लॉकडाउन में जो तस्वीरें सामने आईं वो नहीं दिखतीं। देश के बड़े राज्यों के बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन पर बिहारी मजदूर भरे पड़े थे। कुछ तो पैदल बिहार पहुंचकर सुर्खियों तक में रहे। मुख्यमंत्री ने 18 अक्टूबर को कहा कि सरकार की कोशिश है कि कोई मजबूरी में बाहर ना जाए, इसके लिए राज्य में कई तरह के रोजगार के अवसर प्रदान किए गए हैं। लेकिन ये दावा कितना सच है? एक स्थानीय अखबार के मुताबिक 1951 से लेकर 1961 तक बिहार के करीब 4% लोगों ने दूसरे राज्य में पलायन किया था। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 के दौरान 93 लाख बिहारियों ने अपने राज्य को छोड़कर दूसरे राज्य में पलायन किया। देश की पलायन करने वाली कुल आबादी का 13% आबादी अकेले बिहार से है। जो उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर है। बिहार में रोजगार-मजदूरी, दोनों ही कम बिहार इकोनॉमिक सर्वे बताता है कि बिहार की एक फैक्ट्री में काम करने वाले वर्कर को हर साल 1.29 लाख रुपए मिलते हैं। वहीं, पड़ोसी राज्य झारखंड में हर वर्कर को सालाना 3.44 लाख मिलते हैं। बिहार की एक फैक्ट्री औसतन 40 लोगों को रोजगार देती है। वहीं, हरियाणा में एक फैक्ट्री औसतन 120 लोगों को रोजगार देती है। बिहार में गरीब मजदूरों के साथ प्रतिभा पलायन भी बड़ा सवालखैर ये आंकड़े काफी कुछ बताने को काफी हैं। पलायन कोई शौक से नहीं करता, पेट की आग एक बिहारी को अपने घर से बाहर दूसरे राज्यों की ओर खींच ले जाती है। मजदूर तो बेचारे पेट के मारे हैं, बात अगर मध्यमवर्गीय परिवारों की करें तो उनके बच्चों के लिए भी बिहार में करियर की राह बहुत मुश्किल है। बिहार से न जाने कितने ही आईटी इंजीनियर, फैक्ट्री के सुपरवाइजर, दवा कंपनियों में काम करने वाले फार्मासिस्ट और यहां तक कि पत्रकार भी रोजी के लिए ही दिल्ली और दूसरे महानगरों में जा बसे हैं। इसकी वजह सिर्फ एक ही है कि इन नौकरियों के लिए बिहार में ऐसी कंपनियां ही नहीं हैं। ये सवाल सिर्फ बड़ा नहीं बल्कि बेहद गंभीर भी है और इसके जवाब तो आनेवाली पीढ़ियां भी सरकार से जरूर मांगेंगी।


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