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आजादी के समय कॉलेज का प्रेसिडेंट रहा नेता, जो PM की कुर्सी से बस 1 कदम दूर रह गया

भारत की राजनीति में कुछ बरगद के पेड़ सरीखे नेता भी हुए हैं। छात्र राजनीति की नर्सरी से निकलकर राजनीतिक जीवन में सफल मुकाम हासिल करने वाले ...

भारत की राजनीति में कुछ बरगद के पेड़ सरीखे नेता भी हुए हैं। छात्र राजनीति की नर्सरी से निकलकर राजनीतिक जीवन में सफल मुकाम हासिल करने वाले नेताओं की फेहरिस्त लंबी है। ऐसे नेता अपनी जड़ों से भी जुड़े रहे और ऊंचा मुकाम भी हासिल किया। यूनिवर्सिटी रोड सीरीज की पहली कड़ी में ऐसे ही एक दिग्गज नेता कहानी पेश है। ऐसा नेता जिसकी जिंदगी में उसकी उम्र के बराबर ही किस्से रहे। जो सादगी के लिए पहचाना गया लेकिन विवादों से भी चोली दामन का साथ रहा। जिसने एक नहीं बल्कि दो-दो राज्यों की कुर्सी संभाली। और जो प्रधानमंत्री के पद से महज एक कदम दूर रह गया था। गुलामी की बेड़ियों में बंधे भारत में नैनीताल की पहाड़ियों में बलूती गांव में अक्टूबर 1925 को वन विभाग में अधिकारी पूर्णानंद तिवारी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। नाम रखा गया नारायण दत्त। अंग्रेजों को चुनौती देते रहे। लाठी खाई और जेल भी गए। नैनीताल, हल्द्वानी, बरेली के स्कूलों में शुरुआती पढ़ाई पूरी की। उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद (अब प्रयागराज) पहुंचे। सन 1947 में देश जब आजाद हुआ, तो वह इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के निर्वाचित छात्रसंघ अध्यक्ष थे। छात्रसंघ में सीखा राजनीति का ककहरा का नाम भारतीय राजनीति के आकाश में बुलंद सितारे की तरह चमका। पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। एन. डी. तिवारी का नाम भी दिखा। अंग्रेजी शासन से संघर्ष और फिर छात्र राजनीति का ककहरा सीखते हुए उन्होंने अलग पहचान बनानी शुरू कर दी। वह ऑल इंडिया कांग्रेस यूनियन के सचिव भी रहे। बाद में 1969 में इंडियन यूथ कांग्रेस के पहले अध्यक्ष भी बने। देश आजाद हो गया था। आज का उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश राज्य का ही हिस्सा हुआ करता था। 1952 में हुए पहले चुनाव में नैनीताल सीट से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक चुन लिए गए। 1957 में फिर से विधायक बने। 1963 के चुनाव में कांग्रेस का हिस्सा हो गए और प्रदेश सरकार में मंत्री का पद मिला। नारायण दत्त तिवारी उड़ान भर चुके थे। वह राजनीति की सीढ़ी चढ़ते जा रहे थे। 3 बार यूपी, 1 बार उत्तराखंड के सीएम बने तिवारी ने तीन बार उत्तर प्रदेश की कमान संभाली। वह 1976, 1985 और 1988 में यूपी के मुख्यमंत्री बने। हालांकि एक भी बार वह अपना कार्यकाल पूरा नहीं चला सके। उत्तराखंड की स्थापना के बाद वह 2002 से लेकर 2007 तक सीएम भी बने रहे। एन डी तिवारी, चौधरी चरण सिंह की सरकार में वित्त और संसदीय कार्य मंत्री रहे। राजीव गांधी कैबिनेट में विदेश मंत्री भी रहे। इसके साथ ही तिवारी ने राज्यसभा सांसद, आंध्र प्रदेश के राज्यपाल से लेकर योजना आयोग के डेप्युटी चेयरमैन भी रहे। वो चुनाव नहीं हारते तो बन सकते थे PM! बोफोर्स घोटाले में तत्कालीन पीएम राजीव गांधी फंसते दिखे तो कुछ महीनों के लिए दूसरे नेता को प्रधानमंत्री बनाने की बात पार्टी के अंदर शुरू हुई। इनमें एक पी वी नरसिम्हा राव थे, तो दूसरे थे एन डी तिवारी। बताया जाता है कि तिवारी ने खुद ही इस बात से इनकार कर दिया। 1991 में राजीव की हत्या के बाद हुए संसदीय चुनाव में तिवारी को 5 हजार वोट के अंतर से हार मिली। कहा जाता है कि उनके जीतने की सूरत नें नरसिम्हा राव की जगह तिवारी ही प्रधानमंत्री गद्दी संभाल सकते थे। नारायण दत्त तिवारी की गिनती उन नेताओं में होती है, जिन्होंने मुश्किल हालात या तनाव को जाहिर तौर पर हावी नहीं होने दिया। मिलनसार स्वभाव और डाउन टू अर्थ स्वभाव की वजह से चुनौतीपूर्ण स्थिति को भी कोमलता और धैर्य के साथ निपटाते थे। अपने दफ्तर की हर फाइल को गौर से पढ़ा करते थे। इस वजह से अधिकारी भी काम में किसी तरह की गड़बड़ी को लेकर सतर्क रहते थे। विवादों से भी रहा चोली-दामन का नाता एन डी तिवारी के जीवन में विवाद भी कम नहीं रहे। खूबसूरत महिलाओं के प्रति इनके दिल में खास जगह रही। आंध्र प्रदेश का राज्यपाल रहने के दौरान एक स्थानीय चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन किया, जिसमें वह महिलाओं के साथ हमबिस्तर नजर आए। इसकी वजह से उन्हें पद तक छोड़ना पड़ा। साल 2008 में रोहित शेखर नामक युवक ने कोर्ट में पैटर्निटी सूट दायर करते हुए एन डी तिवारी को अपना पिता बताया। डीएनए जांच के बाद यह बात सच भी साबित हुई। 89 की उम्र में तिवारी ने रोहित की मां उज्जवला से शादी की। 18 अक्टूबर को जन्मदिन के दिन ही 2018 में तिवारी की मौत हो गई।


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