कोलकाता महज 18 साल की उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले खुदीराम बोस की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 1908 में उन्हें फांसी की सजा हुई ...

कोलकाता महज 18 साल की उम्र में फांसी के फंदे को चूमने वाले खुदीराम बोस की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 1908 में उन्हें फांसी की सजा हुई थी। अपनी शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल में उनके नाम की धोती बुनी जाने लगीं और युवा उस धोती को पहना करते थे। फांसी से पहले खुदीराम बोस की एक तस्वीर सामने आई थी जिसमें उनके पैरों में रस्सी तो थी लेकिन चेहरा आत्मविश्वास और देश के लिए शहीद होने के गर्व से भरा हुआ था। उस तस्वीर में करोड़ों भारतीयों के साथ-साथ उन अंग्रेज शासकों के लिए भी संदेश छिपा था कि हम भारतीय सजा-ए-मौत से घबराते नहीं हैं, हमें इससे डराने की रत्तीभर भी कोशिश मत करना। खुदीराम बोस का जन्म बंगाल के मिदनापुर में हुआ था। वह तब 15 साल के थे जब अनुशीलन समिति का हिस्सा बने थे। यह 20 वीं सदी की संस्था थी जो बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार का काम करती थी। एक साल में ही खुदीराम बोस ने बम बनाना सीख लिया था और वे उन्हें पुलिस थानों के बाहर प्लांट करते थे। किंग्सफोर्ड की हत्या का किया था प्रयास 1908 में खुदीराम बोस के जीवन में निर्णायक पल आया जब उन्हें और दूसरे क्रांतिकारी प्रफुल चाकी को मुजफ्फरपुर के जिला मैजिस्ट्रैट किंग्सफोर्ड की हत्या का काम सौंपा गया। किंग्सफोर्ड की हत्या के पहले कई प्रयास हुए थे लेकिन सब फेल रहे। मुजफ्फरनपुर में ट्रांसफर से पहले किंग्सफोर्ड बंगाल में मैजिस्ट्रेट थे। कलकत्ता (अब कोलकाता) में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेजिडेंसी मैजिस्ट्रेट को बहुत सख्त और क्रूर अधिकारी माना जाता था। भारतीय क्रांतिकारियों को कठोर सजा और अत्याचारपूर्ण रवैये की वजह से उनके प्रति युवाओं में गुस्सा था। क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या का फैसला किया। इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी को चुना गया। किंग्सफोर्ड की जगह कैनेडी की पत्नी और बेटी की मौत दोनों क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर पहुंचकर एक धर्मशाला में आठ दिन रहे। इस दौरान उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या और गतिविधियों पर पूरी नजर रखी। उनके बंगले के पास ही क्लब था। अंग्रेजी अधिकारी और उनके परिवार के लोग शाम को वहां जाते थे। 30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्सफोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे। रात के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे। उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी। प्रफुल्ल चाकी ने खुद को मार ली गोली खुदीराम बोस और उनके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उसपर बम फेंका, जिससे उसमें सवार मां-बेटी की मौत हो गई। वे दोनों यह सोचकर भाग निकले कि किंग्सफोर्ड मारा गया है। पुलिस से बचने के लिए दोनों ने अलग-अलग राह पकड़ ली। एक स्टेशन में पुलिस दरोगा को प्रफुल चाकी पर शक हो गया और उन्हें घेर लिया गया। खुद को घिरा देख प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली। पांच दिन चला मुकदमा, 13 जून को सजा सुनाई गईइसी तरह खुदीराम बोस भी पकड़े गए और उन पर हत्या का मुकदमा चला। उन्होंने अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया था लेकिन, इस बात पर बहुत अफसोस है कि निर्दोष मिसेज कैनेडी और उनकी बेटी गलती से मारे गए। यह मुकदमा केवल पांच दिन चला। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया। जज से बोले खुदीराम- आपको भी बम बनाना सिखा सकता हूं कहते हैं कि जब 13 जून 1908 को इस मामले में की सजा सुनाई गई तो उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। फैसला देने के बाद जज ने उससे पूछा, ‘क्या तुम इस फैसले का मतलब समझ गए हो?’ इस पर खुदीराम ने जवाब दिया, ‘हां, मैं समझ गया, मेरे वकील कहते हैं कि मैं बम बनाने के लिए बहुत छोटा हूं। अगर आप मुझे मौका दें तो मैं आपको भी बम बनाना सिखा सकता हूं।’ इस घटना के बाद बंगाल में छात्रों ने कई दिनों तक खुदीराम बोस की फांसी का विरोध किया लेकिन 11 अगस्त की सुबह 6 बजे खुदीराम को फांसी दे दी गई। वहां मौजूद लोगों के अनुसार फांसी मिलने तक वह एक बार भी न घबराए थे और न ही कोई शिकन थी।
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