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NBT पॉलिटॉकः दुविधा में चल रहे ओवैसी तो बिहार में चल रहा प्रेशर पॉलिटिक्स का खेल

बात यूपी की हो या फिर बिहार, कर्नाटक की हो या छत्तीसगढ़ की, राजनीतिक गहमागहमी चारों तरफ देखने को मिल रही है। बिहार में प्रेशर पॉलिटिक्स का ख...

बात यूपी की हो या फिर बिहार, कर्नाटक की हो या छत्तीसगढ़ की, राजनीतिक गहमागहमी चारों तरफ देखने को मिल रही है। बिहार में प्रेशर पॉलिटिक्स का खेल चल रहा है तो उत्तर प्रदेश में बेचारे असदुद्दीन ओवैसी खुद ही दुविधा में फंसे दिखाई दे रहे हैं। वहीं, कर्नाटक में येदियुरप्पा सीएम पद से हट भले गए हों, लेकिन सरकार पर उनका असर साफ दिख रहा है। राजनीतिक रस्साकसी सिर्फ बीजेपी शासित राज्यों में ही नहीं है, बल्कि कांग्रेस के शासन वाले छत्तीसगढ़ में भी सियासी हाल कुछ सामान्य नहीं है। पढ़िए, NBT पॉलिटॉक...

Pure Politics: वेस्ट बंगाल में मिले तगड़े झटके से ओवैसी अभी पूरी तरह उबर भी नहीं पाए थे कि यूपी से भी एक तगड़ा झटका मिल गया। वहीं, इन दिनों बिहार में बहुत उठापटक देखने को मिल रही है। ज्यादातर अहम मुद्दों पर सीएम नीतीश कुमार की राय बीजेपी की राय से अलग है।


NBT Politalk: दुविधा में चल रहे ओवैसी तो बिहार में चल रहा प्रेशर पॉलिटिक्स का खेल

बात यूपी की हो या फिर बिहार, कर्नाटक की हो या छत्तीसगढ़ की, राजनीतिक गहमागहमी चारों तरफ देखने को मिल रही है। बिहार में प्रेशर पॉलिटिक्स का खेल चल रहा है तो उत्तर प्रदेश में बेचारे असदुद्दीन ओवैसी खुद ही दुविधा में फंसे दिखाई दे रहे हैं। वहीं, कर्नाटक में येदियुरप्पा सीएम पद से हट भले गए हों, लेकिन सरकार पर उनका असर साफ दिख रहा है। राजनीतिक रस्साकसी सिर्फ बीजेपी शासित राज्यों में ही नहीं है, बल्कि कांग्रेस के शासन वाले छत्तीसगढ़ में भी सियासी हाल कुछ सामान्य नहीं है। पढ़िए, NBT पॉलिटॉक...



दुविधा में औवेसी
दुविधा में औवेसी

वेस्ट बंगाल में मिले तगड़े झटके से ओवैसी अभी पूरी तरह उबर भी नहीं पाए थे कि यूपी से भी एक तगड़ा झटका मिल गया। वह यूपी में ओमप्रकाश राजभर की पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने की तैयारी में थे। राजभर योगी सरकार में मंत्री रह चुके हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव के वक्त अपनी पार्टी के लिए मनमुताबिक सीट न मिलने पर उन्होंने बीजेपी से अलग होने का फैसला किया था। तभी से वह राज्य में बीजेपी को 2022 के चुनाव में बेदखल करने की बात करते आ रहे हैं। यूपी की बड़ी पार्टियां ओवैसी से दूरी बनाकर चल रही हैं, सो उन्हें राजभर का ही सहारा था। लेकिन राजभर अब अचानक अपना ट्रैक बदलते दिख रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने बीजेपी के राज्य अध्यक्ष से बंद कमरे में मुलाकात की। चर्चा है कि राजभर यह जानना चाहते थे कि अगर वह बीजेपी के पाले में वापसी करें तो उनके लिए बीजेपी कितनी विधानसभा सीट छोड़ सकती है? राजभर को अब खुद से ज्यादा बेटे की चिंता है। बीजेपी उनके बेटे को टिकट देने से लेकर मंत्री बनाने तक के लिए राजी है। इस मामले में ऊंट आखिरकार चाहे जिस करवट बैठे अभी राज्य अध्यक्ष से मुलाकात कर ओमप्रकाश राजभर ने यह संदेश तो दे ही दिया कि बीजेपी उनके लिए अछूत नहीं है। यहीं से ओवैसी का संकट शुरू होता है। ओवैसी बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़े थे और चुनाव बाद कुशवाहा नीतीश कुमार के पाले में जाकर एनडीए का हिस्सा बन गए। यूपी में भी ओवैसी की पसंद बने राजभर की ‘निष्ठा’ संदिग्ध हो गई है। ओवैसी विरोधी पार्टियों को यह कहने का मौका मिल गया है कि ‘हम लोग तो शुरू से कहते आए हैं कि ये सब बीजेपी के ही चट्टे-बट्टे हैं’। ओवैसी के लिए तय करना मुश्किल हो रहा है कि राजभर के साथ अपना रिश्ता बनाए रखें या समय रहते उनसे किनारा कर लें।



येदियुरप्पा से पंगा नहीं लेने का
येदियुरप्पा से पंगा नहीं लेने का

उत्तराखंड में क्या हुआ था? त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर बीजेपी आलाकमान ने जब तीरथ सिंह रावत को सीएम बनाया तो वह खुद को जल्द से जल्द पूर्ववर्ती सीएम की छाया से बाहर निकलने की हड़बड़ी में दिखे। पूर्ववर्ती सरकार के फैसलों को पलटना, त्रिवेंद्र सिंह के वफादार माने जाने वाले नेताओं को किनारे लगाना और उनके कार्यकाल में अहम पदों पर तैनात अधिकारियों से भी दूरी बनाना, यह सब तीरथ सिंह रावत के लिए परेशानी का सबब बन गया और मुश्किल से मिला मुख्यमंत्री पद उन्होंने चार महीने के अंदर ही गंवा दिया। ऐसा उदाहरण पहली बार देखने को मिला कि चुनाव में चेहरा बनाने के इरादे से लाए गए सीएम को ‘नॉन परफॉर्मर’ मानकर चुनाव से पहले ही हटाना पड़ गया। उत्तराखंड के घटनाक्रम के बाद जब बीजेपी ने कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा को हटाकर उनकी जगह जूनियर बोम्मई को सीएम बनाया तो वह हड़बड़ी में नहीं दिखे। उन्होंने तो न येदियुरप्पा के फैसलों को बदलने में कोई रुचि दिखाई और न ही उनके वफादारों को किनारे में लगाने की कोशिश में हैं। उलटे उन्होंने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया। उनकी मंशा येदियुरप्पा को यह इत्मीनान दिलाने की है कि वह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भले ही न हों, लेकिन सरकार उन्हीं की है। इतना सम्मान पाने के बाद येदियुरप्पा भी जूनियर बोम्मई को स्थापित करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। तीरथ सिंह रावत के लिए जरूर यह सोचने का मौका होगा कि काश, उन्होंने भी जूनियर बोम्मई जैसा रास्ता अख्तियार किया होता।



खिचड़ी तो पक रही है!
खिचड़ी तो पक रही है!

पिछले महीने छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार के लिए सब कुछ बहुत अच्छा नहीं गया था। राज्य के कद्दावर नेताओं में शुमार और बघेल सरकार में मंत्री टीएस सिंह देव के भीतर की पीड़ा किसी और बहाने से बाहर आ गई। उनके खिलाफ कांग्रेस के ही एक विधायक ने संगीन आरोप लगाए। जिस विधायक ने आरोप लगाए, उसे सीएम बघेल का नजदीकी माना जाता है। आरोप से आहत टीएस सिंह देव सदन छोड़कर चले गए थे। उन्होंने कहा था कि वह जब तक जांच में निर्दोष साबित नहीं हो जाते, सदन में नहीं आएंगे। काफी मान-मनौव्वल के बाद यह मामला रफा-दफा हुआ। पिछले दिनों राजनीतिक गलियारों में यह खबर फैली कि टीएस सिंह देव ने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया है, हालांकि सरकार ने इसे गलत बताया। कांग्रेस पार्टी यह दावा भले ही कर रही हो कि सब कुछ सामान्य हो गया है, लेकिन ऐसा है नहीं। अंदर ही अंदर कुछ खिचड़ी पक जरूर रही है। 2018 के विधानसभा चुनाव में टीएस सिंह देव भी सीएम पद के दावेदार थे। जैसा मध्य प्रदेश, राजस्थान में हुआ था, वैसा छत्तीसगढ़ में भी हुआ था। सीएम की रेस में शामिल सभी नेताओं को पहले पार्टी को चुनाव जिताने का टास्क दिया गया और चुनाव बाद फैसला लेने की बात कही गई। संयोग की बात तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार बन गई। सीएम पद तीन ही थे, लेकिन दावेदार छह। तीन को वेटिंग लिस्ट में डाल दिया गया। मध्य प्रदेश में सिंधिया को इंतजार जब लंबा लगने लगा तो उन्होंने कमलनाथ सरकार ही गिरा दी। राजस्थान में सचिन ने भी यही कोशिश की, यह बात अलग है कि वह कामयाब नहीं हो पाए। टीएस सिंह देव भी कई मौकों पर आलाकमान को उसके वादे की याद दिला चुके हैं। अब वह और ज्यादा इंतजार के मूड में नहीं दिखते।



प्रेशर पॉलिटिक्स का खेल
प्रेशर पॉलिटिक्स का खेल

इन दिनों बिहार में बहुत उठापटक देखने को मिल रही है। ज्यादातर अहम मुद्दों पर सीएम नीतीश कुमार की राय बीजेपी की राय से अलग है। सवाल उठ रहा है कि क्या नीतीश कुमार का बीजेपी से दिल भर गया है और वह कोई नया रास्ता तलाश रहे हैं? बीच में उनकी पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा का एक बयान भी आ चुका है कि नीतीश कुमार पीएम मटीरियल हैं। जातिगत जनगणना की मांग को लेकर तेजस्वी यादव का ज्ञापन खुद उन्होंने अपने हाथों से लिया और दोनों ही लोग जातिगत जनगणना की मांग का समर्थन भी कर रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार की पॉलिटिक्स को बहुत बारीकी से समझने वाले मानते हैं कि फिलहाल नीतीश कुमार कोई बड़ा कदम नहीं उठाने वाले हैं। वह बीजेपी के दबाव से बाहर आने को इन दिनों ‘प्रेशर पॉलिटिक्स’ खेल रहे हैं। विधानसभा के चुनाव में जेडीयू के तीसरे नंबर पर आ जाने के बाद से नीतीश कुमार बीजेपी की ‘कृपा’ पर सीएम बने माने जा रहे हैं। बीजेपी भी मानती है कि नीतीश कुमार के पास अब बहुत विकल्प नहीं बचे हैं। ऐसे में नीतीश कुमार यह साबित करना चाहते हैं कि उनके पास अब भी विकल्प हैं और उनकी पहुंच खत्म नहीं हुई है। देखने वाली बात होगी कि नीतीश कुमार का यह पैंतरा उन पर बढ़े दबाव को कितना कम कर पाएगा। नतीजे के लिए वक्त का इंतजार करना होगा।





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