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गिलानी के बाद अब कश्मीर में कौन बनेगा पाकिस्तान का मोहरा? हर किसी के मन में यही सवाल

श्रीनगर/नई दिल्ली 'पाकिस्तान के साथ हमारा धार्मिक संबंध है और इसके अलावा, कश्मीर विभाजन का एक अधूरा एजेंडा बना हुआ है...' कश्मीरी...

श्रीनगर/नई दिल्ली 'पाकिस्तान के साथ हमारा धार्मिक संबंध है और इसके अलावा, कश्मीर विभाजन का एक अधूरा एजेंडा बना हुआ है...' कश्मीरी अलगाववाद का प्रतीक सैयद अली शाह गिलानी से जब भी मेरी मुलाकात होती वह इसी तरह अपनी बात शुरू करते। 'पाकिस्तान से बादल उड़कर कश्मीर में बारिश और बर्फबारी करते हैं और यहां का पानी वहां भी बहता है...' यह एक भौगोलिक तथ्य था जिसे कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के स्टैंड को सही ठहराने के लिए गिलानी अपनी हर बातचीत में इस्तेमाल करते थे। वह अपने इन विचारों को हर शुक्रवार होने वाली सभाओं में संबोधन के दौरान व्यक्त करते थे। उनके भाषणों में पूर्वाग्रह और दोहराव था। हालांकि पाकिस्तान के निर्देश पर, उन्होंने अपने रुख में बदलाव किया था और 1993 में ऑल इंडिया हुर्रियत कॉन्फ्रेंस (APHC) के गठन के वक्त कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के लिए त्रिपक्षीय वार्ता पर राजी हुए थे। 2003 में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का किया बंटवारा APHC के संस्थापक सदस्य होते हुए भी उन्होंने 2003 में इसके एक संघटक पीपल्स कॉन्फ्रेंस के विरोध में इसका बंटवारा कर दिया था। गिलानी 2002 विधानसभा चुनाव में पीपल्स कॉन्फ्रेंस के प्रॉक्सी उम्मीदवार उतारने के कदम के खिलाफ थे। लेकिन वह खुद तीन बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा के सदस्य रहे और अलगाववाद का प्रॉपैगैंडा फैलाते हुए अपनी पेंशन लेते रहे। गिलानी पाखंड के प्रतिमूर्ति थे। वह युवाओं को कश्मीर के लिए कुर्बानी देने का आह्वान करते थे और उनके अंतिम संस्कार में भी जाया करते थे लेकिन साथ ही वह यह भी सुनिश्चित करते थे कि उनका कोई वंशज इस रास्ते न जाए। ठीक इसी तरह पाकिस्तान में यूनाइटेड जिहाद काउंसिल चलाने वाले मोहम्मद यूसुफ शाह उर्फ सईद सलाहुद्दीन के साथ भी है जिसके खुद के बच्चों ने कभी बंदूक नहीं उठाई। कश्मीर में आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान को नहीं मानते वजह गिलानी पाकिस्तान के इस कदर पक्षधर थे कि वह कश्मीर में फैले आतंकवाद में उसका हाथ होने के तथ्य से भी इनकार करते थे। जब कभी मैं पाकिस्तानी आतंकी (लश्कर ए तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद) के कश्मीर में मौजूदगी का पॉइंट उठाता तो वह उनके पाकिस्तानी होने का खंडन करते और दावा करते कि वे सीमा के उस पार रहने वाले कश्मीरी ही होंगे। जब कभी मैं कश्मीर में आतंकवाद के लिए पाकिस्तान की भागीदारी के तथ्य पेश करता तो वह बातचीत वहीं रोक देते और पाकिस्तानी नैरेटिव को पुष्ट करने वाले स्वनिर्मित तर्कों के अपने सामान्य एकालाप में वापस चले जाते। मुशर्रफ से असहज रहा करते थे गिलानी कट्टर पाकिस्तानी समर्थक होने के बावजूद गिलानी पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ के साथ असहज थे। 2005 में दिल्ली स्थित पाकिस्तान हाई कमीशन में दूसरे अलगाववादी नेताओं के साथ मुशर्रफ संग बैठक में यूएस के इशारों पर गिलानी ने फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया (अब खैबर पख्तूनख्वा) और बलूचिस्तान में सहधर्मियों की हत्या रोकने की बात कही थी। सैन्य तानाशाह होने के चलते मुशर्रफ इससे नाराज हो उठे और उन्होंने गिलानी से खुद को कश्मीर तक सीमित रखने की सलाह दे डाली। इसके बाद से ही मुशर्रफ ने उन्हें नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था और मीरवाइज उमर फारूक के नेतृत्व वाले APHC के प्रो-डायलॉग गुट को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। आईएसआई से लेकर सलाहुद्दीन तक दबदबा दूसरे अलगाववादी नेता गिलानी से खौफ खाते थे क्योंकि उनका दबदबा पाकिस्तान के आईएसआई और सलाहुद्दीन तक था। वह दिल्ली के साथ अलगाववादियों के संवाद में मुख्य बाधा थे। वह इस बात पर जोर देते थे कि भारत को पहले कश्मीर को एक विवादित जगह माननी चाहिए। वह भारत-पाकिस्तान की बातचीत को व्यर्थ बताते थे और कश्मीर से किए गए जनमत संग्रह के वादे की प्रतिबद्धता को पूरा न करने के लिए दिल्ली को दोषी ठहराते थे। यह गिलानी का किसी भी सूरत में समझौता न करने वाला स्टैंड ही था जिसने उन्हें उनके अनुयायियों के बीच एक प्रभावशाली व्यक्ति बना दिया था। धार्मिक आयोजनों में उनकी टोपी और जैकेट की नीलामी होती थी। गिलानी बहुत हद तक आत्म मुग्ध व्यक्ति थे जिन्होंने 1990 में हिज्बुल मुजाहिद्दीन को पार्टी का उग्रवादी विंग घोषित कर अपरिवर्तनीय रूप से अपने मूल संगठन जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) को नुकसान पहुंचाया। आखिरकार उन्हें जेईआई से इस्तीफा देना पड़ा और अपने समर्थकों के साथ 2004 में उन्होंने तहरीक-ए-हुर्रियत का गठन किया। भारत का सामना अप्रत्याशित अलगाववाद से होगा गिलानी हमेशा से ध्रुवीकरण का अहम फैक्टर रहे जिन्होंने कभी अपने पक्ष में तो कभी विरोध में प्रबल भावनाएं पैदा कीं। अपने अनुयायियों के लिए वह एक संत की तरह थे लेकिन उनके विरोधी उन्हें शैतान का अवतार मानते थे। उनके निधन से एक तरफ शोक तो दूसरी ओर जश्न की बंटी हुईं भावनाएं उमड़ेंगी। से भारत विरोधी और पाकिस्तान के समर्थन वाले अलगाववाद ने अपना एक बड़ा प्रभावशाली चेहरा खो दिया है। उन्होंने 2008, 2010 और 2016 में भारत-विरोधी प्रदर्शन को अपने कंट्रोल में लिया था। दूसरे अलगाववादियों को भी उनके आदेशों का पालन करना पड़ता था। अब पाकिस्तान को यह तय करना होगा कि कश्मीर में किसे समर्थन देना है और कौन बंदी व भारतीय एजेंसियों के अन्य दबाव के बावजूद उसके एजेंडे को आगे बढ़ाने में अडिग रहेगा। गिलानी की मौत के बाद पाकिस्तान के पास बहुत कम विकल्प बचे हैं क्योंकि उन्होंने खुद को रिप्लेस करने के लिए न ही किसी को आगे बढ़ने दिया और न ही किसी को तैयार किया। जहां तक बात भारत की है, तो अब उसका सामना अप्रत्याशित, चेहराविहीन और हो सकता है कि भूमिगत अलगाववाद से हो जिसे समझना और डील करना उतना आसान नहीं होगा। (लेखक पूर्व इंटेलिजेंस ब्यूरो अधिकारी हैं जो पाकिस्तान में कार्यरत रह चुके हैं)


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