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यूपी का वह CM जिसे अंग्रेज कलेक्‍टर ने पेड़ से बांधकर पीटा था, किस्‍से बाबू बनारसी दास के

लखनऊ 28 फरवरी, 1979 से लेकर 17 फरवरी, 1980...एक साल पूरा होने में 11 दिन कम... अपने बेबाक अंदाज के लिए मशहूर रहे बाबू बनारसी दास ने सिर्फ...

लखनऊ 28 फरवरी, 1979 से लेकर 17 फरवरी, 1980...एक साल पूरा होने में 11 दिन कम... अपने बेबाक अंदाज के लिए मशहूर रहे बाबू बनारसी दास ने सिर्फ इतने ही समय तक यूपी के 11वें मुख्‍यमंत्री की कुर्सी संभाली थी। मात्र 15 साल की कच्‍ची उम्र में उन्‍होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हल्‍ला बोल दिया था। वह स्‍वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए और कई बार जेल गए। जेल में अंग्रेजों ने इन्‍हें भयंकर यातनाएं दीं पर बाबू साहब ना झुके और ना ही टूटे। अंग्रेज अफसर उन्‍हें जितना ज्‍यादा प्रताड़ित करते, जेल से बाहर उनकी लोकप्रियता में उतना ही इजाफा होता जाता। आम जनता और क्रांतिकारियों के बीच बाबू बनारसी दास कितने लोकप्रिय थे, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1946 के विधानसभा चुनाव में वह बुलंदशहर से निर्विरोध चुन लिए गए। उसी साल वह बुलंदशहर कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भी बन गए। 8 जुलाई, 1912 को बुलंदशहर में जन्‍मे बाबू बनारसी दास 1930 से 1942 के बीच चार बार जेल गए। अगस्‍त, 1942 में उन्‍हें खतरनाक मानते हुए बुलंदशहर जेल में नजरबंद कर दिया गया। वहां उनको इतनी यातनाएं दी गईं कि हर तरफ उनका नाम मशहूर हो गया। उस दौरान बुलंदशहर में तैनात रहे अंग्रेज कलेक्‍टर हार्डी ने प्रिजनर्स एक्‍ट के तहत बनारसी दास को खूब मारा-पीटा। 5 फरवरी, 1943 की रात उन्‍हें बैरक से बाहर निकाला और जेल कैंपस में लगे जामुन के पेड़ में बांध दिया। कलेक्‍टर ने अपने सिपाहियों के साथ बनारसी दास पर जमकर सितम ढाए। उनके कपड़े उतारकर तब तक पीटा, जब तक वह अधमरे होकर जमीन पर नहीं गिर गए। सरकारी कोठी की जगह अपने घर से चलाया शासन रामनरेश यादव के जाने के बाद मुख्‍यमंत्री बनाए गए बनारसी दास पहले ऐसे सीएम थे जिन्‍होंने सरकारी कोठी के बजाय अपने निजी घर में रहना पसंद किया। वह बेहद सादगी पसंद थे और संगठन में उनकी मजबूत पकड़ थी। हमेशा उऩका प्रयास रहा कि आम आदमी उनसे आसानी से मिल सके। उन्होंने पहली बार मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष को पारदर्शी बनाने के लिए उसके आडिट करने का आदेश दिया। जेल में रहने के दौरान ही उनका सरदार बल्‍लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्‍त्री, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरोजिनी नायडू और मौलाना आजाद जैसे बड़े नेताओं से परिचय हो गया था। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी पर मजबूत पकड़ रखने वाले दास बाबू गीता और उपनिषदों का ज्ञान भी रखते थे। कोई नहीं था तो बन गए राष्‍ट्रपति के अनुवादक बताते हैं कि एक बार तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉ राधाकृष्‍णन कहीं पर अंग्रेजी में भाषण दे रहे थे पर वहां उसका अनुवाद करने वाला कोई मौजूद नहीं था। ऐसे में बनारसी दास ने यह जिम्‍मा ले लिया । बाद में राष्‍ट्रपति ने उनकी प्रशंसा भी की। 1962 से 1966 के बीच बनारसी दास ने सूचना, सहकारिता, श्रम, बिजली, सिंचाई के अलावा संसदीय कार्य मंत्री का पद भी संभाला। उनके आदेश पर ही सूचना विभाग ने जिलावार स्‍वतंत्रता सेनानियों का डिटेल प्रकाशित किया। अन्‍य विभागों में भी उन्‍होंने ढेर सारी नई योजनाएं शुरू कीं। चुनाव में सीएम संपूर्णानंद के कैंडीडेट को 'हरा' दिया 60 के दशक में ऐसी घटना हुई कि सबको बाबू बनारसी दास की राजनीतिक क्षमता का लोहा मानना पड़ा। दरअसल उस वक्‍त कांग्रेस में खेमेबाजी चरम पर थी। यूपी कांग्रेस अध्‍यक्ष पद के लिए चुनाव होने वाले थे। बताते हैं कि उस समय यूपी के सीएम रहे डॉ संपूर्णानंद को पूरा विश्‍वास था इस चुनाव में उनके उम्‍मीदवार मुनीश्‍वर दत्‍त उपाध्‍याय ही जीतेंगे। संपूर्णानंद ने तो सार्वजनिक रूप से यहां तक कह दिया था कि अगर मुनीश्‍वर दत्‍त चुनाव हार गए तो वह मुख्‍यमंत्री पद से इस्‍तीफा दे देंगे। आखिरकार उपाध्‍याय चुनाव हार गए और संपूर्णानंद को इस वजह से इस्‍तीफा देना पड़ गया। चंद्रभानु गुप्‍ता ने तब यूपी कांग्रेस अध्‍यक्ष पद का चुनाव जीता था। इन सबके पीछे का मास्‍टरमाइंड कोई और नहीं बल्कि बाबू बनारसी दास ही थी। उन्‍हें कांग्रेस की जमीनी राजनीति में महारत हासिल थी। जब PM नेहरू का विरोध करने पर हो गया फायदा 1980 के विधानसभा चुनाव में बनारसी दास को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद 1984 में उन्‍होंने राजनीति से संन्‍यास ले लिया। अगले साल 3 अगस्‍त, 1985 में 73 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। मनमोहन सरकार में मंत्री रहे अखिलेश दास इनके बेटे थे। अमेरिका, इटली, इंग्‍लैंड जैसे देशों का दौरा कर चुके बाबू साहब वहां के प्रशासनिक तरीकों को अपने यहां भी लागू करने पर जोर दिया करते थे। वह पत्रकार भी रहे थे। कहा जाता है कि बनारसी दास ने एक बार कांग्रेस के खुले अधिवेशन में प्रधानमंत्री सहित सभी मंत्रियों को कोठियों के बजाय छोटे मकानों में रहने का सुझाव दे डाला था। अपने बेबाक अंदाज के चलते उन्‍हें कई बार राजनीतिक रूप से फायदा भी हुआ। 1952 में उन्‍होंने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की किसी पॉलिसी का विरोध कर दिया। इसके बाद नेहरू ने तत्‍कालीन यूपी सीएम गोविंद बल्‍लभ पंत से कहा था कि इस लड़के को पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी बना लो।


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