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देश में ज्यादा संख्या पंजाब में, फिर भी दलित क्यों नहीं बन पाए वोटबैंक? जानें फैक्टर

चंडीगढ़: पंजाब विधानसभा चुनाव में दलित इस बार सभी पार्टियों के अजेंडे (Dalit in Punjab) में हैं। ऐसा अभी तक नहीं हुआ। क्या यह बदलाव राजनी...

चंडीगढ़: पंजाब विधानसभा चुनाव में दलित इस बार सभी पार्टियों के अजेंडे (Dalit in Punjab) में हैं। ऐसा अभी तक नहीं हुआ। क्या यह बदलाव राजनीतिक रूप से दलित समाज को एकजुट कर पाएगा? पंजाब में हाल के बरसों में शायद पहली बार विधानसभा चुनाव में दलित टॉप अजेंडे में हैं। वह भी सभी राजनीतिक दलों के। हालांकि अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या यूपी (UP election) और बिहार (Bihar) की तरह ही पंजाब का दलित समुदाय (Dalit community) भी ख़ुद को वोटबैंक के रूप में स्थापित कर पाता है? इस सवाल को इसलिए पूछना पड़ा, क्योंकि दलितों के नाम पर बनी बीएसपी ख़ुद ही पंजाब में स्थापित नहीं हो पाई है। सत्ता तो दूर की रही, बहुजन समाज पार्टी मुख्य विपक्षी दल तक नहीं बन सकी। यह हालत तब है, जबकि यूपी और बिहार के मुक़ाबले पंजाब में कहीं अधिक दलित वोटर हैं। बीएसपी की स्थिति बताती है कि पंजाब की सियासत किस तरह अलग रही है। यूपी और बिहार में जो समाज सत्ता दिलाने में इतना प्रभावशाली है, वह पंजाब में अपना असर नहीं छोड़ पा रहा। यही वजह है कि पंजाब में कभी राजनीतिक पार्टियां दलितों को लेकर इतनी आक्रामक नहीं हुईं। स्थानीय पत्रकार संजय गर्ग यूपी-बिहार और पंजाब के इस अंतर को समझाते हैं। उनके मुताबिक, इस बुनियादी फर्क की असल वजह यही है कि दोनों राज्यों के मुक़ाबले पंजाब में दलितों की स्थिति बिलकुल अलग है। '32 फीसदी वोटर लेकिन एकजुट नहीं' संजय गर्ग कहते हैं, 'एक तो बड़ी वजह यही है कि यहां के दलित उस तरह से एकजुट नहीं नज़र आते, जैसे यूपी, बिहार में। पंजाब में भले ही 32 फ़ीसदी वोटर दलित हैं, लेकिन ये आपस में ही बुरी तरह बंटे हुए हैं। कभी एक नहीं हुए। नतीजा यह है कि 25 फ़ीसदी के करीब होने के बावजूद जट सिख राजनीति पर पकड़ बनाए हुए हैं। उनकी एकजुटता ने उन्हें अहम फैक्टर बना रखा है।' पंजाब के दलितों में से लगभग 26 फ़ीसदी मजहबी सिख हैं, तो 20 प्रतिशत रविदासिया। इसके अलावा करीब नौ फ़ीसदी वाल्मीकि हैं। इनमें से कुछ ऐसे हैं, जिनमें डेरों को लेकर बड़ी आस्था है। वे उन्हीं डेरों के रुख को देखते हुए वोट को लेकर फैसला करते हैं। इस वजह से बहुत कम देखने को मिलता है, जब सूबे के दलितों ने किसी एक पार्टी के पक्ष में मतदान किया हो। आर्थिक मजबूत है दलित, कई परिवार विदेश मे दूसरा बड़ा फर्क यह है कि पंजाब के दलित, यूपी और बिहार के मुक़ाबले आर्थिक तौर पर अधिक मजबूत हैं। दोआबा के कई ऐसे इलाक़े हैं, जहां दलित परिवारों के कई सदस्य विदेश में बसे हैं। फगवाड़ा समेत कई इलाक़ों में दलितों का रुतबा इसी बात से आंका जा सकता है कि वहां के सबसे बड़े बिजनेसमैन, होटल मालिक तक इसी समाज से आते हैं। यही वजह है कि इन इलाक़ों के लोग ख़ुद को दलित बताते हुए शर्म की बजाय गर्व महसूस करते हैं। पंजाब में दलित अत्याचार भी बेहद कम वहां दलित युवा तो बाकायदा अपनी गाड़ियों पर ख़ुद बड़े अक्षरों में ऐसे जातिसूचक शब्द लिखते हैं, जिन पर बिहार-यूपी के दलितों को ऐतराज रहता है। अगर उन्हें वैसे शब्द कह दें, तो मामला पुलिस में एफआईआर दर्ज करने तक पहुंच जाता है। लेकिन पंजाब में इन शब्दों का इस्तेमाल रैप और गानों में हो रहा है। यही वजह है कि यहां किसी दलित के साथ अत्याचार की घटनाएं बेहद कम मिलती हैं। लेकिन अगर ये सारे फैक्टर इतने प्रभावी हैं, तो इस बार दलितों पर जोर क्यों? पंजाब की राजनीति समझने वालों का मानना है कि अगर अपनी ज़मीन टटोल रहे शिरोमणि अकाली दल ने यह दांव नहीं चला होता, तो शायद इस बार भी दलितों पर उतना फोकस नहीं रहता। बीएसपी के जरिए जमीन बनाने में लगा अकाली दल दरअसल, बीजेपी से अलग होने के बाद अकाली दल दलित वोटबैंक के ज़रिए अपनी खोयी ज़मीन वापस पाने की कोशिश में लगा था। इसी इरादे से उसने बीएसपी के साथ गठबंधन भी किया। कांग्रेस ने इस गठबंधन के जवाब में अपने एक दलित नेता को ही मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान कर दिया। अब चुनावी नतीजों से ही पता चलेगा कि राजनीतिक दलों की कोशिशों के बाद पंजाब में भी दलित एकजुट होकर वोटबैंक बन पाए या नहीं।


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