लखनऊ '' सीरीज में आज जिस राजवंश की चर्चा हो रही है, वह है तो मध्य प्रदेश की ग्वालियर रियासत का सिंधिया राजवंश लेकिन यूपी की राज...
लखनऊ '' सीरीज में आज जिस राजवंश की चर्चा हो रही है, वह है तो मध्य प्रदेश की ग्वालियर रियासत का सिंधिया राजवंश लेकिन यूपी की राजनीति में इससे जुड़ी कुछ अमिट यादें हैं। यूपी की रायबरेली लोकसभा सीट ने राजमाता विजयराजे सिंधिया और उनके बेटे की राहें हमेशा के लिए अलग कर दी थीं। बात अक्टूबर 1979 की है जब तत्कालीन राष्ट्रपति ने संसद भंग कर नए चुनाव कराने का आदेश दिया। इससे पहले 1977 में इमर्जेंसी के खात्मे के बाद हुए चुनाव में जनता पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था। लेकिन आपसी मतभेद के चलते जनता पार्टी भी ज्यादा दिन सरकार में नहीं रह पाई। उस समय ग्वालियर रियासत की जनसंघ में थीं। वहीं उनके बेटे माधवराव सिंधिया 1977 के लोकसभा चुनावों में अपनी मां का साथ छोड़कर स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में गुना से खड़े हुए। असल में वह अपना भविष्य कांग्रेस में देख रहे थे। यहां उन्हें कांग्रेस का समर्थन मिला और जनता पार्टी की जबर्दस्त लहर के बावजूद भी वह चुनाव जीत गए। उन पर इंदिरा गांधी की ओर से दबाव था कि वह कांग्रेस में शामिल हो जाएं लेकिन माधवराव फैसला नहीं कर पा रहे थे। 1980 में जब दोबारा लोकसभा चुनाव सिर पर आए उसी समय यह चर्चा जोर पकड़ने लगी कि इंदिरा गांधी के मुकाबले उनकी पारंपरिक सीट रायबरेली से राजमाता को जनसंघ की ओर से खड़ा किया जाए। अपनी आत्मकथा 'राजपथ से लोकपथ पर' में राजमाता याद करती हैं- 'एक दिन दूरदर्शन के समाचार में सुना कि मैं इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली हूं। इस समाचार से मुझे हैरानी भी हुई और आघात भी हुआ।' काफी सोचविचार के बाद यह तय हुआ कि राजमाता के इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ने से जनता पार्टी का मनोबल और ऊंचा होगा। राजमाता भी मान गईं। हालांकि, रायबरेली इंदिरा गांधी का पारंपरिक क्षेत्र था और 1977 को अपवाद माना जाए तो उनका वहां से हारना लगभग नामुमकिन था, इसके बाद भी इंदिरा गांधी ने आंध्र प्रदेश के मेडक से भी चुनाव लड़ने का फैसला किया। जाहिर सी बात है इंदिरा गांधी भी राजमाता से कड़ी टक्कर की उम्मीद कर रही थीं। उस समय माधवराव सिंधिया समझ चुके थे कि देश में कांग्रेस के अलावा कोई दूसरी पार्टी राज नहीं कर पाएगी। इसलिए वह कांग्रेस और खासकर गांधी परिवार के नजदीक होना चाहते थे। ऐसे में राजमाता के फैसले से सबसे ज्यादा निराशा और परेशानी उन्हें ही हुई। आखिर में उन्होंने अपनी मां से अनुरोध कि वह इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव न लड़ें। लेकिन राजमाता विवश थीं। उनका तर्क था कि यह फैसला उनका अपना नहीं पार्टी का है। इससे पीछे हटना पार्टी की प्रतिष्ठा काम करना होगा। राजमाता ने बेटे माधवराव को समझाया कि भले ही हम राजनीति के दो छोरों पर खड़े हों लेकिन इससे परिवार और घरेलू संबंधों पर आंच नहीं आनी चाहिए। अफसोस ऐसा हो न सका। माधवराव ने मां से कह दिया, 'अम्मा मैं मजबूर हूं, मुझे इंदिरा जी ने कहा दिया है कि मैं अब स्वतंत्र उम्मीदवार नहीं बना रह सकता। मुझे कांग्रेस की सदस्यता लेनी ही होगी। अब हम दोनों के रास्ते अलग हैं। आप अपनी राह जाइए और मुझे अपनी राह पकड़ने दीजिए।' राजमाता मन मसोस कर रह गईं। आखिरकार राजनीति के इस द्वंद्व में ममता घायल हुई। अपनी आत्मकथा में राजमाता ने लिखा है, 'और इस तरह हम दोनों दो विपरीत रास्ते पर चल पड़े। मेरा दूध मुझसे अलग हो गया। संतान की जुदाई मेरी अंत:पीड़ा बन गई, यह बिसराए नहीं बिसरती।'
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